एक देश, एक चुनाव- क्या हम इतिहास की दुर्घटना दोहराने जा रहे हैं

in #elections6 years ago


जिसे सुहास पल्शिकर जैसे पॉलिटिकल साइंटिस्ट्स इतिहास की एक बड़ी दुर्घटना बताते हैं- हम उसी पर माथापच्ची कर रहे हैं. यह दुर्घटना 1951-52 के दौर में हुई थी, जब लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए गए थे. देश ने आजादी के बाद आहिस्ता से आंखें खोली थीं. कांग्रेस का एकछत्र राज था. चुनने को कोई दूसरा था ही नहीं. निर्विघ्न, निर्बाध शासन. खामोशी तब प्रतिरोध की गूंज नहीं मानी जाती थी. सहमति का मद्धम स्वर होती थी. फिर साठ के दशक में सत्ता के प्रति समाज असहज हुआ. क्षेत्रीय विकल्प तलाशे गए. अविचारित और अनावश्यक अंकुश को छांटकर अलग कर दिया गया. इस तरह 1967 वह आखिरी साल रहा, जब केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव हुए.

अब जिन्न फिर बोतल से बाहर निकाला जा रहा है. सत्ता पक्ष बार-बार वन नेशन वन इलेक्शन के फार्मूले को हवा दे रहा है. विपक्ष विरोध में अड़ा है. आपसी आलोचना की संस्कृति के उदाहरण पेश किए जा रहे हैं. जनता हैरान है, कुछ समझ आ रहा है, कुछ नहीं. साथ-साथ चुनाव कराने के तर्क हैं, न कराने के भी. राजनीतिक दलों को अपने-अपने वजूद की चिंता है. ऐसा फार्मूला क्षेत्रीय दलों के लिए मुसीबत का ढोल बजा सकता है. केंद्र और राष्ट्रपति को बहुत अधिक ताकतवर बना सकता है. इस राय से नाइत्तेफाकी रखने वालों का कहना है कि एकसाथ चुनाव कराने से विकास के काम तेज हो सकते हैं. राजनीतिक स्थिरता आ सकती है. आम लोगों का जीवन आसान हो सकता है. उनकी भागीदारी बढ़ सकती है. चुनावों पर लगभग हर छह महीने में फूंका जाने वाला करोड़ों रुपया बच सकता है.

यह बहस कई सालों से जिंदा है. 2015 में संसदीय समिति और 2017 में नीति आयोग की रिपोर्ट्स में इस पर चर्चा की गई थी. दोनों ने चुनाव आयोग के इनपुट्स के आधार पर अपने प्रपोजल रखे थे. इसे अमल में लाने के लिए गंभीरता से काम करना पड़ेगा. राज्य सरकारों को समय से पहले बर्खास्त करना होगा उनका कार्यकाल बढ़ाना होगा. अगर केंद्र या राज्य की सरकारें कारण-अकारण गिर गईं तो नए चुनाव कराने होंगे. इसका एक मायने यह भी होगा कि चुनावी चक्र का पहिया संभालने के लिए कुछ स्थितियों में नई लोकसभा या राज्य विधानसभा के लिए संविधान सम्मत पांच वर्ष की अवधि की बजाय अल्पावधि को निर्धारित करना होगा. इस दौरान अंतरिम अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन से बेहतर विकल्प क्या होगा. केंद्र में ऐसी स्थिति होने पर राष्ट्रपति देश को चलाएंगे- जब तक पूर्वनिर्धारित तिथि पर देश में एक साथ चुनाव न हो जाएं.

ये सब होगा कैसे? संविधान में ही संशोधन करना होगा.लोकसभा का कार्यकाल तय करने और राज्यसभा सदस्यों का कार्यकाल तय करने वाले अनुच्छेद 83 में संशोधन करना होगा. साथ ही, संसदीय सत्र को स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 85, विधानसभा का कार्यकाल तय करने वाले अनुच्छेद 172 और विधानसभा सत्र को स्थगित और खत्म करने वाले अनुच्छेद 174 में भी संशोधन करना पड़ेगा. साथ ही राष्ट्रपति शासन लगाने वाले अनुच्छेद 356 में भी बदलाव करना होगा. इसी अनुच्छेद के विस्तार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में बोम्मई केस में अपना फैसला सुनाया था. उसने कहा था कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन सिर्फ संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर लगाया जा सकता है. राज्य सरकार के बहुमत का परीक्षण विधानसभा के बाहर नहीं, भीतर होना चाहिए. राष्ट्रपति शासन के लिए संसद की सहमति होनी चाहिए. यह फैसला संप्रभुता के संवैधानिक सिद्धांत पर आधारित था. इसलिए जहां किसी राज्य सरकार का कार्यकाल इस बात पर तय होता है कि उसे कितने दिन बहुमत मिलता है. अनुच्छेद 356 (4) और (5) यह तय करते हैं कि केंद्र का शासन किसी राज्य में छह महीने की दो सिलसिलेवार अवधि से ज्यादा का नहीं हो सकता. अब इस सीमा को हटाना होगा. तो, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जिस संघवाद की पुष्टि की थी, उस पर भी असर होने वाला है. संघवाद पर ही संविधान का मूलभूत ढांचा टिका हुआ है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट 1973 में केशवानंद भारती केस में कह चुका है कि संविधान के किसी भी संशोधन में उसके बुनियादी ढांचे को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए. न तो उसे संक्षिप्त किया जाना चाहिए और न ही समाप्त किया जाना चाहिए.

वैसे एक देश में एक चुनाव के कई दूसरे नतीजे भी हो सकते हैं. जनता के प्रति जनप्रतिनिधियों की जवाबदारी कम हो सकती है. यूं भी जवाबदर जवाब देने से लगातार आंख बिचकाते रहते हैं. ये भ्रम पाले रहते हैं कि उन्हें किसी ईश्वरीय विधान से धरती पर भेजा गया है. तिस पर, पांच साल तक शासन करने का संवैधानिक अधिकार उन्हें मसीहाई घमंड दे सकता है. क्षेत्रीय पार्टियां तो मानो गटर में ही चली जाएंगी. क्षेत्रीय मुद्दे भी- चूंकि राष्ट्रीय मुद्दे और राष्ट्रीय पार्टियां हावी हो जाएंगी. फिर अगर किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता तो गतिरोध पैदा हो सकता है. अगर केंद्र और विधानसभा में एक ही पार्टी की सरकार बनी तो तानाशाही की सी स्थिति हो जाएगी. प्रजातांत्रिक कामना को चूस लिए जाने की आशंका हो सकती है. विदेशी ताकतें चुनावों को वांछनीय दिशा में मोड़ सकती हैं. एक और शंका जताई गई है- चुनाव चेहरों के इर्द-गिर्द घूमेंगे. राष्ट्रीय पार्टियां पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर देंगी और चुनाव अभियान उसी चेहरे पर केंद्रित हो जाएगा. यूं चेहरे चमकाना अब भी जनतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है. नाम जाप से शख्सियतों को देवतुल्य बना दिया जाता है. छवि युद्ध लड़े जाते हैं. पर अक्सर इस युद्ध में छवि के पीछे मुखौटा ही नजर आता है.

तो, कानूनी और तकनीकी नुक्तों को छोड़ भी दें तो इस भारी बदलाव के लिए अभी पूरी तैयारी नहीं की गई है. एक देश, एक टैक्स के फार्मूला की सुई अभी छोटे कारोबारियों को चुभ ही रही है. दुर्भाग्य से हमारे इतिहास में राजनीतिक धीरज के उदाहरण न के बराबर हैं. इसके बिना आम सहमति संभव नहीं- और आम सहमति के बिना कोई भी फैसला जोखिम से भरा हो सकता है.