आईना
रोज़ सुबह जब उठती हूँ
शुभता का सूरज जगमगाता है
घड़ी मेरी पाठ पढ़ाती
पर आईना मेरा मुस्काता है।
बिंबों के उस बड़े जाल में
मेरे चहरे को बैठाता है
देख स्वयं को जी उठती
सुन्दर मुझे वो दिखाता है।
आज भी वही हुआ
वही जो रोज़ हो जाता है
पर कुछ अलग था मन में
जो समझ के परे आता है।
सोचा मैंने क्यो यह
मुझे खूबसूरत दिखाता है
क्यों यह मन के अक्सर
झूठे घमंड जगाता हैै।
क्यों नहीं उस बिम्ब में
मेरी असलियत दिखाता है
क्यों नहीं वह मेरे मन के
विकार मुझे दर्शाता है।
क्यों इर्ष्या और घृणा
को मुझसे ही छिपता है
क्यों बाहरी सौंदर्य और
मोह के जाल में फसाता है।
क्यों मुझमें छिपे लालच को
मुझे नहीं दर्शता है
क्यों सुंदर सी उन आँखों में
धूर्तता नहीं दिखाता है।
क्यों तृष्णा के उस भाव को
प्रत्यक्ष नही लाता है
क्यों कुंठा की उस नाव को
नाविक को न दिखाता है।
क्यों गोरे चेहरे के पीछे
कालिख को वो छिपता है
क्यों अंदर बसे उस दानव को
मानव ही अब दिखाता है।
क्यों बैर भाव और शोषण को ही
वो सराहनीय जताता है
क्यों मेरी खुद्गर्ज़ी को वो
एक चंचलता बतलाता है।
क्यों सच्चाई मेरी
मुझि से दूर ले जाता है
क्यों बुराई को मेरी
इस झूठे जगत की अच्छाई बताता है।
रोज़ सुबह जब उठती हूँ
शुभता का सूरज जगमगाता है
घड़ी मेरी पाठ पढ़ती
पर आईना मेरा मुस्काता है।
बिंबों के उस बड़े जाल में
मेरे चहरे को बैठाता है
देख स्वयं को जी उठती
सुन्दर मुझे वो दिखाता है।
Author Credits: Vaishnavi Soni
Website Credits: writm.com
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