चमड़े-रेशम के जानलेवा फैशन का टशन - 1 [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 22]
“एक लाश को कन्धा देने पर या श्मशान भूमि के दर्शन मात्र पर अपवित्र हुए हमारे तन को तुरंत स्नान करवाना आवश्यक हो जाता है। लेकिन यह एक विचित्र विडंबना है कि स्नान के बाद उसी तन को हम मृत प्राणियों की मृत चमड़ी से बने परिधानों में लपेट कर “सुशोभित” हुआ मानते हैं!”
फैशन और दिखावे के इस दौर में चमड़ा और रेशम जैसे प्रत्यक्ष महसूस किये जा सकने वाले पशु-उत्पाद के प्रति भी उपभोक्ता आज भ्रम में रहते हैं। कई उपभोक्ता तो इस तथ्य से भी अनभिज्ञ हैं कि चमड़ा और रेशम मानव द्वारा निर्मित फैक्टरियों में नहीं बनता, इनके मूल स्रोत पशु ही हैं। हाँ, फैक्टरियों में इनको ऐसा रूप-रंग अवश्य दिया जाता है, जिससे कि पहली नज़र में उपभोक्ता को ये कोई पशु-उत्पाद न लग सके।
चूँकि चमड़ा एक मृत जीव की लाश का ऊपरी हिस्सा है, अतः वह जल्दी ही अन्य मृत-अंगों की तरह सड़ने-गलने लग जाता है। इससे बचाने के लिए चमड़े पर क्रोमियम आदि कई रासायनिक घोलों का लेप आदि लगाकर संरक्षित किया जाता है। इनकी बदबू को कम करने और चमकाने के लिए रंग-पॉलिश हेतु अनेक हानिकारक और कैंसर-जनक रासायनिक द्रव्यों का उपयोग होता है, जो आपकी चमड़ी के माध्यम से आपके रक्त में भी पहुँच जाते हैं। चर्मशोधन, प्रसंस्करण और परिष्करण में इस्तेमाल किये जाने वाले कुछ प्रमुख रसायन हैं: क्रोमियम, चूना, सोडियम सल्फेट के घोल, फोर्मिक एसिड, सल्फ्यूरिक एसिड, क्रोमियम सल्फेट के लवण, सीसा, जस्ता, फोर्मलडीहाइड, चर्बी, अल्कोहोल, सोडियम बायकार्बोनेट, डाई, रेसिन-बाईंडर्स, मोम, कोलतार के यौगिक, इमल्सिफायर्स, अघुलनशील डिग्रीसिंग एजेंट्स, नमक, साइनाइड-आधारित फिनिशेस आदि।
चमड़ा उद्योग चार प्रमुख क्षेत्रों में बंटा हुआ हैं: (i) फुटवेयर, (ii) गारमेंट्स, (iii) गुड्स एंड एक्सेसरीज़ और (iv) टैनिंग।
आज हमारे देश में इस उद्योग ने कितना विशाल रूप ले लिया है, इसका अनुमान निम्न आंकड़ों से लगाया जा सकता है:
• पूरे विश्व में चमड़े के उत्पादन का 10% अकेले भारत में होता है।
• पूरी दुनिया में मवेशियों का 21 फीसदी और भेड़-बकरियों का 11 फीसदी भारत में हैं।
• हमारे देश में हर साल 2 करोड़ 65 लाख जोड़े फुटवेयर (जूते-चप्पल) का उत्पादन होता है।
• कुल एक करोड 80 लाख इकाई चमड़े के वस्त्रों का प्रति वर्ष उत्पादन हमारे देश में होता है।
• इसके अलावा भारत में टैनिंग के क्षेत्र में सालाना करीब दो अरब वर्गफीट चमड़े का उत्पादन होता है।
• प्रतिवर्ष 6 करोड़ 30 लाख इकाई लैदर गुड्स और एक्सेसरीज़ देश में तैयार किये जाते हैं।
• वर्ष 2013-2014 में चमड़ा-उत्पादों का कुल निर्यात 370 अरब रुपये था। यह सालाना 24 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा है। 2017 तक इनका निर्यात 850 अरब रुपये तक पहुँचने की उम्मीद है।
• देश को प्राप्त विदेशी मुद्रा का प्रमुख स्रोत होने के चलते भारत सरकार ने इसे फोकस सेक्टर में शामिल किया है। अतः मेक-इन-इंडिया जैसी योजनाओं में भी चमड़े-उद्योग की अहम भूमिका है।
• चमड़े से निर्मित उत्पादों का घरेलू बाज़ार भी अगले पांच वर्षों में दुगुना हो जाने के आसार हैं।
भारत में लगभग 25 लाख लोग चमड़ा-उद्योगों से सीधे जुड़े हुए हैं। अतः लागत को और कम करने के लिए सरकार इनके अत्यधिक मशीनीकरण पर जोर दे रही है। इस क्षेत्र में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोले जा चुके हैं।
अँग्रेज़ जब भारत छोड़ कर गए तो अपने पीछे नौकरशाही के बीज और विलासिता की ऐसी आदतें छोड़ गए, जिनसे हमारी संस्कृति आज तक ग्रस्त है। किसी भी कार्यालय में चमचमाते चमड़े के जूते और कमर में कसी हुई बेल्ट के साथ ही गले से लटकती रेशम की टाई, एक उच्च अधिकारी को चिन्हित करने के साधन बन गए हैं। धीरे-धीरे खुद को उच्च अधिकारी की तरह दिखाने के लिए आमजन ने भी इस गणवेश की नकल करना शुरू कर दिया। अब तो कई दफ्तरों और संस्थाओं में ऐसा औपचारिक गणवेश पहनना एक अलिखित आचार-कोड बन गया है। यही नहीं, स्कूलों-कॉलेजों में बच्चों को छोटी अवस्था से ही इन असहज उत्पादों को पहनने का आदि बनाना शुरू कर दिया गया। माता-पिता भी बच्चों पर विद्यालय-प्रशासन द्वारा लगाई टाई-बैल्ट और चमड़ों के जूतों की अनिवार्यता से गौरवांवित होते हैं। उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं है कि आज चमड़े के उत्पादन के लिए हजारों एकड़ जंगल तबाह किए जा रहे हैं, करोड़ों जानवरों की हत्या की जा रही है, इंसानियत का गला घोंटा जा रहा है और स्वयं मानव पर अस्तित्वगत संकट मंडरा रहा है। इन उत्पादों के उपलब्ध आसान और लाभकारी विकल्पों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है। गले में एक फंदानुमा बंधी हुई टाई और जूते के नाम पर कैप्सूलनुमा सिलिंड्रिकल आकार में कैद पंजे की उँगलियों से बच्चे कभी सहज महसूस नहीं करते, परंतु उनको ये ज़बरन रोज़ पहना कर आदत डाली जाती है। आपने कई वयस्क सेल्समेन और बिज़नेस एक्ज़ीक्यूटिव की असहजता को भी भांपा होगा जब वे अपने अधिकारी या किसी अन्य मीटिंग के लिए मजबूरन अपने गले में रेशम की टाई बाँधते हैं और मीटिंग समाप्त होते ही उस फंदे को उतारकर अपने बैग में बंद कर देते हैं।
पर्यावरणविद मेनका गाँधी कहती है, “मैं प्रमाण सहित तुलना करके अपनी बात रखती हूँ। अच्छे लैदर शूज़ (चमड़े के जूते) कैनवस शूज़ (कपड़े से बने जूतों) की तुलना में करीब पाँच गुना महंगे होते हैं। आप उन्हें धो नहीं सकते। उन पर पॉलिश करने में अतिरिक्त पैसा खर्च होता है। काले रंग की रसायनों से युक्त पॉलिश न केवल एलर्जी का कारण बन सकती है बल्कि धूल के कणों को जमा करने के लिए आधार सतह का काम करती है। बच्चे अक्सर अपनी जुराबों से जूते रगड़ते नज़र आते हैं। यानि जुराबें भी साफ़ नहीं रह पाती और जल्दी ही घिस भी जाती हैं। लैदर शूज़ में ज्यादा पसीना आता है और वो इसे सोख भी नहीं सकते। पसीने के कारण फंगस और त्वचा रोग भी हो जाते हैं। ऐसे जूतों को पहन कर न तो बच्चे तेज़ दौड़ पाते हैं और न ही ठीक से खेल सकते हैं। यानि कुल मिलाकर चमड़े के जूते जेब, सेहत और जानवरों के हित में नहीं हैं, तो फिर क्यों उन्हें एक पुरानी परंपरा मानकर बढ़ावा दे रहे हैं। जबकि हज़ारों बेगुनाह जानवर सिर्फ इसीलिए मारे जा रहे हैं क्योंकि आपके बच्चे उनके चमड़े के जूते पहनते हैं। कैनवस या कपड़े के जूते हर नज़रिये से अच्छे और सुविधाजनक हैं। उन्हें पॉलिश की ज़रुरत नहीं पड़ती और आप उन्हें धो कर नया सा बना सकते हैं। उन्हें पहनकर पैरों को भी आराम मिलता है और पसीने के कारण परेशानी भी नहीं होती। ये पर्यावरण और देश की अर्थव्यवस्था में भी सकारात्मक योगदान देते हैं। ये कपास से बनते हैं और किसी भी जानवर को इनके लिए मारा नहीं जाता। इन्हें बच्चे और आप हर मौके पर पहन सकते हैं। ये विविध रंगों और डिजाइनों में मिलते हैं। कैनवस शूज़ के इतने अधिक फायदे होने के बावजूद आप और तमाम स्कूल प्रबंधन चुप किसलिए हैं?”
इसमें कोई दोराय नहीं कि भारी-भरकम चमड़े के जूते हमारे पैरों के लिए बिलकुल अनावश्यक हैं। पर्यावरण और पशुओं के क़त्ल के ज़िम्मेदार ये चमड़े के जूते हमारे खुद के शरीर का भी नुकसान करते हैं। कई अध्ययन आज औद्योगिक-स्तर पर उत्पादित होने वाले सभी महंगे जूतों को हमारे पैरों के लिए अनुकूल नहीं बताते। इसीलिए आजकल मिनिमलिस्ट फुटवेयर का प्रचलन बढ़ा है। कई मेराथन धावकों का कहना है कि इन मोटे और कड़े तलवों वाले जूतों की वजह से ही उनके पैर चोटिल हुए हैं, आर्थेराइटिस जैसे रोगों का शिकार हुए हैं और कई धावकों को बाद में मात्र खड़े होने या थोड़ा चलने के लिए आर्क-सपोर्ट या ओर्थोटिक्स का प्रयोग करना पड़ा और कुछ को अपने पैरों का ऑपरेशन तक करवाना पड़ा।
क्रिस्टोफर मेकडोगाल ने अपनी पुस्तक “बोर्न टू रन” में जूतों के कारण अपने पैरों में हुए दर्द और तदुपरांत चिकित्सकों के चक्करों के अपने अनुभवों के बारे में विस्तृत रूप से उल्लेख किया है।
पैरों पर जूतों के दुष्प्रभावों और उनके उपायों का विश्लेषण नेचुरल रनिंग सेंटर की पुस्तक “इंजरी-फ्री रनिंग” में डाक्टर मार्क कुकुज़ेल्ला ने बड़े ही सुन्दर तरीके से किया है। वे बताते हैं कि बचपन से लगातार जूते पहनने से हमारे पंजों का प्राकृतिक आकार ही बदल जाता है। हमारी उंगलियाँ एक दूसरे से चिपक जाती है और थोड़ी ऊपर की ओर उठ जाती है जिससे हमारे पंजों की धरती पर पकड़ और संतुलन की कमी हो जाती है। बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर जूतें हमारी एड़ियों को ज़मीन से काफी ऊंचा उठा देते हैं, उँगलियों को एक खाँचें में पिचका देते हैं और अगले पंजों पर कोण बनाकर सारा भार डालने का प्रयास करते हैं। डाक्टर रे मेकक्लेनाहन बताते हैं कि हम परंपरागत रूप से, मानव के पैरों को प्राकृतिक रूप से ही गलत तरह से डिजाइन किया हुआ मानते हैं और उनको ठीक व परफेक्ट करने के लिए नये-नये उत्पाद बाज़ार में उतारते रहते हैं। परंतु अपने पैरों पर बचपन से प्लास्टर की तरह जूतों को बांधने से अच्छा है कि हम इन चमड़ों के जूतों की बजाय मिनिमलिस्ट फुटवेयर का इस्तेमाल करें।
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी