मेरे एक ग्लास दूध के खातिर [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 17]steemCreated with Sketch.

in LAKSHMI4 years ago (edited)

मेरे एक ग्लास दूध के खातिर,
बहती खून की नदियाँ फिर-फिर।
मेरा कलेजा बड़ा सुकून पाता,
पर तिल-तिल कर मरती गौमाता।

उसका होता ता-उम्र बलात्कार,
प्रसव-पीड़ा की वेदना हर-साल।
संतान-विरह की चीत्कार बार-बार,
बेटे की उधड़ती खाल हर-साल।

मैं गाय को एक ब्लैंडर समझता,
भूसा डालो तो दूध निकलता।
जब दूध निकलना हो गया बंद,
समझा मशीन हो गई जंक।

नई मशीन लाने को ,
कल-पुर्जे बेचे कबाड़ी को।
चमड़ा, हड्डी, माँस और खून,
सब कुछ बिकता है, चुन-चुन।

बूचड़खाने बड़े सयाने,
सब लगा देते हैं ठिकाने।
पकवान, परिधान, दवा व प्रसाधन,
सबमें खपता अंग-अंग गौ-धन।

गाय है बड़ी लाभकारी,
गौ-माता परम उपकारी।
पर ये है गोपालक की मजबूरी,
चारे की कीमत, बड़ी भारी।

जब दूध देना हो जाए बंद,
कैसे हो चारे का प्रबंध?
अभी बीस साल शेष है जीवन,
कौन देगा इसको भोजन?

अब और गर्भवती वह हो न पाती,
कैसे मानव को अब दूध पिलाती?
चारागाह-जंगल सब मानव खा गया,
झूठन खाने घर-घर ताकती।

कुछ साल प्लास्टिक व कूड़ा खंगालती,
लेकिन भूख से निजात न पाती।
चमड़ा, माँस, खून सब-कुछ लुटाकर,
मनुष्य पर अपना लाड़ जताती।

अनंत क्षमा और करूणा की देवी,
कामधेनु और कपिला कहलाती।
अपने ही घी से प्रज्वलित दियों से
गौ-भक्तों द्वारा पूजी जाती।

मेरे एक ग्लास दूध के खातिर,
कत्लखाने की बनी वह राहगीर।
मेरा कलेजा बड़ा सुकून पाता,
इसी लिए कहते उसे गौ-“माता”!

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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।

धन्यवाद!

सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी