मेरे एक ग्लास दूध के खातिर [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 17]
बहती खून की नदियाँ फिर-फिर।
मेरा कलेजा बड़ा सुकून पाता,
पर तिल-तिल कर मरती गौमाता।
प्रसव-पीड़ा की वेदना हर-साल।
संतान-विरह की चीत्कार बार-बार,
बेटे की उधड़ती खाल हर-साल।
भूसा डालो तो दूध निकलता।
जब दूध निकलना हो गया बंद,
समझा मशीन हो गई जंक।
कल-पुर्जे बेचे कबाड़ी को।
चमड़ा, हड्डी, माँस और खून,
सब कुछ बिकता है, चुन-चुन।
सब लगा देते हैं ठिकाने।
पकवान, परिधान, दवा व प्रसाधन,
सबमें खपता अंग-अंग गौ-धन।
गौ-माता परम उपकारी।
पर ये है गोपालक की मजबूरी,
चारे की कीमत, बड़ी भारी।
कैसे हो चारे का प्रबंध?
अभी बीस साल शेष है जीवन,
कौन देगा इसको भोजन?
कैसे मानव को अब दूध पिलाती?
चारागाह-जंगल सब मानव खा गया,
झूठन खाने घर-घर ताकती।
लेकिन भूख से निजात न पाती।
चमड़ा, माँस, खून सब-कुछ लुटाकर,
मनुष्य पर अपना लाड़ जताती।
कामधेनु और कपिला कहलाती।
अपने ही घी से प्रज्वलित दियों से
गौ-भक्तों द्वारा पूजी जाती।
कत्लखाने की बनी वह राहगीर।
मेरा कलेजा बड़ा सुकून पाता,
इसी लिए कहते उसे गौ-“माता”!
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी