कत्लखानों पर प्रतिबन्ध – एक बचकानी नादानी [खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती, प्रविष्टि – 20]
यदि आपको रोज-रोज लजीज और स्वादिष्ट व्यंजन खाने को विवश किया जाय परन्तु शौच निवृत्त करने की कोई व्यवस्था न दी जाय तो आपकी क्या दशा होगी? कुछ ऐसी ही दशा होगी हमारी धरा की, जब सभी कत्लखाने बंद कर दिए जायेंगे परन्तु पशुओं का कृत्रिम-प्रजनन निर्बाध जारी रहेगा।
कुछ दशकों से अनेक हिंदूवादी, जैन एवं अन्य सम्प्रदायों के संगठन और यहाँ तक कि कई पशु-प्रेमी भी देश भर के कत्लखानों पर वैधानिक प्रतिबंध लगाने के लिए आंदोलनरत हैं। ये आंदोलन पशुओं के प्रति सद्भावना और करुणा से प्रेरित न होकर, बहुत हद तक अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के अधीन हो चलाये जा रहे हैं। चूंकि सम्प्रदाय आधारित राजनीति हमेशा से इस लोकतंत्र पर हावी रही है, ये आंदोलन काफी हद तक सफल भी रहे हैं। दूसरे जानवरों का तो पता नहीं, परन्तु ये आन्दोलनकारी अपनी पूजनीय गायों के कत्ल पर प्रतिबन्ध लगवाने में बहुत सफल रहे हैं। आज देश के मात्र चार राज्यों को छोड़कर बाकी सभी राज्यों ने किसी न किसी रूप में गौ-वध पर वैधानिक प्रतिबंध लगा दिया है।
लेकिन क्या वैधानिक प्रतिबन्ध लगाने से पशुओं की हत्या रूक पाई? उल्टे इसने गौ-तस्करी के अपराध और भ्रस्टाचार को बढ़ावा दिया है। बेचारी गायों को अब कत्ल के लिए ठसा-ठस भरी गाड़ियों में या फिर पैदल ही एक राज्य से दूसरे राज्य तक की लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। कत्ल के लिए तय कराई जाने वाली इतनी लंबी दूरी में गौवंश के साथ कितनी क्रूरता होती होगी, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि कई पशु कत्लखाने तक पहुँचने से पहले ही मर चुके होते हैं। गायों के बड़े झुण्ड को सैंकड़ो किलोमीटर की लम्बी दूरी पैदल ही तय करवाना व्यवसायियों को सस्ता और सुलभ उपाय लगता है। भूख-प्यास से परेशान जब गाय लगातार आगे चलने में असमर्थ हो जाती है तो उसको डंडे से पिटा जाता है, उसकी पूँछ को खींचा व मरोड़ा जाता है, आँखों में मिर्च पाउडर छिड़का जाता है, बार-बार मिर्च छिड़कने के झंझट से छुटकारा पाने के लिए कइयों के तो आँखों में ही हरी मिर्च के टुकड़े काट कर फंसा दिए जाते हैं। पहले गाय का इस तरह से अतिरिक्त शोषण नहीं होता था, जब कत्लखाने पास ही हुआ करते थे और वहाँ तक ले जाने में किसी प्रकार की कोई कानूनी अड़चन नहीं थी। अब तो हर काम कानून की नजरें बचाकर छिप-छिपकर करना पड़ता है। गाय के माँस तक को भैंस का माँस बता निर्यात करना पड़ता है।
आप कहेंगे कि ये तो कानून को ठीक से क्रियान्वित न कर पाने के दुष्परिणाम हैं अन्यथा कानून में कोई दोष नही है। लेकिन यही आकलन तो कानून बनाने से पहले करना आवश्यक है कि उसको ठीक ढंग से क्रियान्वित करना व्यावहारिक रूप से संभव भी है या नहीं। अव्यावहारिक कानून बनाना तो अधिक दोषपूर्ण अपराध है। आखिरकार कानून तो पशुओं के हितार्थ ही बनाया जा रहा था, न? तो इसकी परिणति उनके प्रति अधिक शोषण में क्यों हो रही है?
वस्तुतः गौहत्याओं पर प्रतिबन्ध लगाना आज के समय में मूर्खता-भरा निर्णय है। इसे थोड़ा विस्तार से समझें। आज देश में 20 करोड़ दुधारू गायें हैं। दूध उत्पादन सतत जारी रखने के लिए प्रतिवर्ष उसे गर्भवती बनाना पड़ता है, मतलब कि एक बछड़ा हर साल। सभी स्वस्थ मादा बछड़े भी डेढ़-दो वर्षों में कृत्रिम गर्भाधान के लिए “तैयार” हो जाते हैं। फिर उनके भी एक बछड़ा हर साल होने लगता है। इस दर से गाय की संख्या 5-6 वर्षों में 10-15 गुनी हो जाती है। यदि आज से किसी भी गाय का वध न किया जाये और हमारा दूध पीना जारी रखा जाये तो अगले 5 साल में 20 करोड़ गायें 200 करोड़ में तब्दील हो जाएगी और दस साल में 2000 करोड़ न सही 1000-1500 करोड़ गायें जरूर हो जाएगी...! इनमें से लगभग आधे ‘अनुत्पादक’ नर बछड़े या सांड होंगे। परन्तु दुर्भाग्यवश हमारे पास इतनी बड़ी संख्या में गायों के पोषण हेतु संसाधन ही नहीं हैं। अतः उनकी हत्या अवश्यंभावी हो जाती है। अन्य कोई मार्ग ही नहीं है। हाल ही में लन्दन के फाईनेंशीयल टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक, “भारत के गौमाँस उद्योग का विकास कोई नियोजित विकास नहीं है, बल्कि एक आकस्मिक घटना है।” गौमाँस तो डेयरी उद्योग का उप-उत्पाद है। अतः यदि गायों का कत्ल रोकना है तो कत्लखानों को बंद करने से पहले डेयरी उद्योग को बंद करना होगा। लेकिन इसके विपरीत हमारी सरकार तो डेयरी उद्योग को प्रोत्साहित कर रही है। सन् 2016 के लिए डेढ़ सौ करोड़ टन डेयरी उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा हुआ है और सन् 2020 के लिए दो सौ करोड़ टन का! आज हमारा देश विश्व में सबसे अधिक दूध का उत्पादन करता है, इसीलिए यह विश्व में सबसे अधिक गौमाँस का निर्यात भी करता है। यदि इस गौमाँस के निर्यात और गौमाँस की खपत पर भी रोक लगा दी जाये, चमड़ा उद्योग भी ठप कर दिया जाये, तब भी मेरा दावा है कि गौ-हत्या जारी रहेगी। क्योंकि विश्व का कोई भी देश इतनी बड़ी संख्या में गायों और सांडों को उनकी 20 वर्ष की आयु-पर्यंत मुफ्त भोजन और रहने की व्यवस्था उपलब्ध कराने की हैसियत नहीं रखता है। इतनी बड़ी संख्या में गायों का प्रजनन गौमाँस या चमड़े की जरूरत के लिए नहीं बल्कि डेयरी उद्योग के कारण हो रहा है।
हम समस्या को उल्टे तरीके से हल करने में लगे हुए हैं। ऐसे कभी भी इस समस्या का निदान नहीं होगा। यदि वाकई सरकार और सांप्रदायिक संगठन गौ-हत्या रोकना चाहते हैं तो उनको डेयरी उद्योग पर हमला बोलना चाहिए। सभी प्रकार के (सिर्फ गायों के ही क्यों?) कृत्रिम प्रजनन पर वैधानिक प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। जब प्रजनन बंद होगा तो कत्लखाने भी बंद हो जायेंगे ...बिना उन पर किसी प्रतिबंध के! जब पशु का प्रजनन ही नहीं होगा तो वे बेचारे कत्ल किसका करेंगे?
अगर कृत्रिम प्रजनन पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया जाये, फिर तो देसी नस्ल की गायों और सांडों को छोड़कर शेष सभी नस्लों की गायों और सांडों की तुरंत नसबंदी कर देनी चाहिए। देसी नस्लों का भी कृत्रिम व जबरन प्रजनन न हों, इसकी व्यवस्था करनी होगी। बस, कत्लखाने तो भूख (व्यवसाय की कमी) से ही मर जायेंगे। ऐसा ही कानून कुत्ते, बिल्ली आदि सभी पशुओं के लिए भी बनें। परन्तु आज सब कुछ उल्टा हो रहा है। विदेशी और कृत्रिम नस्ल के श्वानों की नसबंदी की जगह सरकार ने गली के कुत्तों की नसबंदी करने का कानून बना रखा है। अगर आयातीत और कृत्रिम नस्लों के श्वानों की नसबंदी कर दी जाये तो अगले दशक से ये नजर आना बंद हो जायेंगे। जब कृत्रिम नस्ल के कुत्ते खत्म हो जायेंगे तब देखना, कुत्ते पालने वाले लोग गली के कुत्तों को ही अपने घर में शरण और लाड़ देंगे। कुत्तों को दया मृत्यु या सुख मृत्यु (यूथनेसिया) देने की प्रक्रिया से भी मुक्ति मिलेगी।
वास्तव में बीमारी को जड़ से निर्मूल करने की बजाय हम उसके लक्षणों से युद्ध करने में लगे हुए हैं। मेरे विचार से, सभी कत्लखानों पर लगी रोक को तुरंत प्रभाव से हटा देना चाहिए और उसकी जगह सभी प्रकार के जबरन और कृत्रिम प्रजनन पर तुरंत प्रतिबन्ध लागू किया जाना चाहिए। क्योंकि अपराध यहीं से आरम्भ होता है। अपराध को शुरू होने और पनपने से रोका जाय तो वह कभी विकराल रूप लेगा ही नहीं। कत्लखाने तो हमारे समाज की बीमार मानसिकता का लक्षण मात्र हैं, उन्हें प्रतिबंधित करने से कुछ नहीं होगा।
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खून की गंगा में तिरती मेरी किश्ती में आगे पढ़ें, इसी श्रंखला का शेषांश अगली पोस्ट में।
धन्यवाद!
सस्नेह,
आशुतोष निरवद्याचारी