इस्लाम में बताया गया तीन तलाक का सही तरीका, जो ज्यादातर मुसलमान नहीं जानते
भारतीय संविधान ही नहीं पूरी दुनिया के व्यवस्था की पड़ताल कर लीजिए हर जगह यदि कुछ सुविधाएं दी गई हैं तो उन सुविधाओं के गलत इस्तेमाल पर दंड का प्रावधान भी किया गया है। इसे चेक ऐंड बैलेंस कहते हैं कि कोई किसी नियम या अधिकार का कोई गलत फायदा ना उठा ले।
मुसलमानों की यह बहुत बड़ी नाकामयाबी रही है कि वह इस देश में इस्लाम के सही रूप को प्रस्तुत नहीं कर सके। मौलवी मौलाना जितना चंदा वसूलने में अपना प्रयास दिखाते हैं उसका एक 1% भी इस्लाम के सही रूप को सामने लाने की कोशिश करते तो अन्य मजहब के लोगों में इस्लाम के खिलाफ झूठा प्रचार कर पाना किसी के लिए सभंव नहीं होता| इस्लाम में दी गई व्यवस्था को तर्क और व्यवहार के साथ सारे समाज के सामने रखते तो आज ये समस्या उत्पन्न ही नहीं होती| आज हम तीन तलाक पर बात करेंगे और बताएँगे की इस्लाम में तलाक का तरीका कितना सरल और सही है मगर लोग इसका गलत फ़ायदा उठाते है|
पवित्र कुरान में तलाक का सही तरीका क्या है ?
तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग इसको ना पसंद करते हैं। इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है, लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि तलाक़ का अधिकार ही इंसानों से छीन लिया जाए। दरअसल, पति-पत्नी के बीच अगर रिश्ते में अन-बन है तो अपनी ज़िंदगी नर्क बनाने से बेहतर है कि वो अलग होकर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें|
कुरआन में जो तलाक का सही तरीका है वो भारत के बहुत सारे मुसलमान शायद नहीं जानते है|अगर कुरआन के हिसाब से देखा जाये तो कुरआन में जो तलाक का तरीका बताया गया है वो बहुत ही सही तरीका है|किसी जोड़े में तलाक की हालत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है, उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए।
जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे, तो अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें। इसका तरीका कुरान ने यह बतलाया है कि “एक फैसला करने वाला पति के खानदान में से नियुक्त करें और एक फैसला करने वाला पत्नी के खानदान में से चुना जाये और वो दोनों पक्ष मिल कर उनमे सुलह (मेलमिलाप) कराने की कोशिश करें। इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए।
कुरआन में इसे सूरेह निसा आयत 35 में कुछ इस तरह से बताया गया है - "और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है".
इसके बाद भी अगर पति और पत्नी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है, तो पति बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इंतजार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो बुजुर्ग लोगों को गवाह बना कर उनके सामने पत्नी को एक तलाक दे, यानी पति अपनी पत्नी से सिर्फ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक देता हूं”।
ध्यान देने वाली बात यह है की 'तलाक' सिर्फ एक बार ही बोली जाएगी, न की तीन बार या सौ बार, जो लोग जाहिल पाना की हदें पार करते हुए तीन तलाक बोल देते हैं, यह बिल्कुल इस्लाम के खिलाफ है, इस्लाम में ऐसा कही नहीं लिखा है और यह बहुत बड़ा गुनाह है। अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है, वो इस्लामी शरियत और कुरान का मज़ाक उड़ा रहा होता है।
इस एक 'तलाक' के बाद पत्नी 3 महीने (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने तक) पति ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी पति ही उठाएगा, लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरान ने सूरेह अल-तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि 3 महीने पूरी होने से पहले ना तो पत्नी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरान ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इन 3 महीनो के दौरान पति-पत्नी में सबकुछ ठीक हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं।
अक्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर गौर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है। हर मआशरे (समाज) में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं। अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी मां के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शौहर ही के घर गुज़ारे।
तलाक़ कोई अच्छी चीज़ नहीं है और सभी लोग इसको ना पसंद करते हैं। इस्लाम में भी यह एक बुरी बात समझी जाती है, लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं कि तलाक़ का अधिकार ही इंसानों से छीन लिया जाए। दरअसल, पति-पत्नी के बीच अगर रिश्ते में अन-बन है तो अपनी ज़िंदगी नर्क बनाने से बेहतर है कि वो अलग होकर अपनी ज़िन्दगी का सफ़र अपनी मर्ज़ी से पूरा करें|
कुरआन में जो तलाक का सही तरीका है वो भारत के बहुत सारे मुसलमान शायद नहीं जानते है|अगर कुरआन के हिसाब से देखा जाये तो कुरआन में जो तलाक का तरीका बताया गया है वो बहुत ही सही तरीका है|किसी जोड़े में तलाक की हालत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है, उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए।
जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे, तो अल्लाह ने कुरान में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायतें दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें। इसका तरीका कुरान ने यह बतलाया है कि “एक फैसला करने वाला पति के खानदान में से नियुक्त करें और एक फैसला करने वाला पत्नी के खानदान में से चुना जाये और वो दोनों पक्ष मिल कर उनमे सुलह (मेलमिलाप) कराने की कोशिश करें। इससे उम्मीद है कि जिस झगड़े को पति पत्नी नहीं सुलझा सके वो खानदान के बुज़ुर्ग और दूसरे हमदर्द लोगों के बीच में आने से सुलझ जाए।
कुरआन में इसे सूरेह निसा आयत 35 में कुछ इस तरह से बताया गया है - "और अगर तुम्हें शौहर बीवी में फूट पड़ जाने का अंदेशा हो तो एक हकम (जज) मर्द के लोगों में से और एक औरत के लोगों में से मुक़र्रर कर दो, अगर शौहर बीवी दोनों सुलह चाहेंगे तो अल्लाह उनके बीच सुलह करा देगा, बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला और सब की खबर रखने वाला है".
इसके बाद भी अगर पति और पत्नी दोनों या दोनों में से किसी एक ने तलाक का फैसला कर ही लिया है, तो पति बीवी के खास दिनों (Menstruation) के आने का इंतजार करे, और खास दिनों के गुज़र जाने के बाद जब बीवी पाक़ हो जाए तो बिना हम बिस्तर हुए कम से कम दो बुजुर्ग लोगों को गवाह बना कर उनके सामने पत्नी को एक तलाक दे, यानी पति अपनी पत्नी से सिर्फ इतना कहे कि ”मैं तुम्हे तलाक देता हूं”।
ध्यान देने वाली बात यह है की 'तलाक' सिर्फ एक बार ही बोली जाएगी, न की तीन बार या सौ बार, जो लोग जाहिल पाना की हदें पार करते हुए तीन तलाक बोल देते हैं, यह बिल्कुल इस्लाम के खिलाफ है, इस्लाम में ऐसा कही नहीं लिखा है और यह बहुत बड़ा गुनाह है। अल्लाह के रसूल (सल्लाहू अलैहि वसल्लम) के फरमान के मुताबिक जो ऐसा बोलता है, वो इस्लामी शरियत और कुरान का मज़ाक उड़ा रहा होता है।
इस एक 'तलाक' के बाद पत्नी 3 महीने (जिन्हें इद्दत कहा जाता है और अगर वो प्रेग्नेंट है तो बच्चा होने तक) पति ही के घर रहेगी और उसका खर्च भी पति ही उठाएगा, लेकिन उनके बिस्तर अलग रहेंगे, कुरान ने सूरेह अल-तलाक में हुक्म फ़रमाया है कि 3 महीने पूरी होने से पहले ना तो पत्नी को ससुराल से निकाला जाए और ना ही वो खुद निकले, इसकी वजह कुरान ने यह बतलाई है कि इससे उम्मीद है कि इन 3 महीनो के दौरान पति-पत्नी में सबकुछ ठीक हो जाए और वो तलाक का फैसला वापस लेने को तैयार हो जाएं।
अक्ल की रौशनी से अगर इस हुक्म पर गौर किया जाए तो मालूम होगा कि इसमें बड़ी अच्छी हिकमत है। हर मआशरे (समाज) में बीच में आज भड़काने वाले लोग मौजूद होते ही हैं। अगर बीवी तलाक मिलते ही अपनी मां के घर चली जाए तो ऐसे लोगों को दोनों तरफ कान भरने का मौका मिल जाएगा, इसलिए यह ज़रूरी है कि बीवी इद्दत का वक़्त शौहर ही के घर गुज़ारे।
इसके बाद तलाक देने वाला मर्द और औरत जब कभी ज़िन्दगी में दोबारा शादी करना चाहें तो वो कर सकते हैं, इसके लिए उन्हें आम निकाह की तरह ही फिरसे निकाह करना होगा और शौहर को मेहर देने होंगे और बीवी को मेहर लेने होंगे।
अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार निकाह करने के बाद कुछ समय के बाद उनमे फिरसे झगड़ा हो जाए और उनमे फिरसे तलाक हो जाए तो फिर से वही पूरा प्रोसेस दोहराना होगा जो ऊपर बताया गया है।
अब फ़र्ज़ करें कि दूसरी बार भी तलाक के बाद वो दोनों आपस में शादी करना चाहें तो शिरयत में तीसरी बार भी उन्हें निकाह करने की इजाज़त है। लेकिन अब अगर उनको तलाक हुई तो यह तीसरी तलाक होगी जिस के बाद ना तो रुजू (आपस में सुलह) कर सकते हैं और ना ही आपस में निकाह किया जा सकता है।
अब चौथी बार उनकी आपस में निकाह करने की कोई गुंजाइश नहीं, क्यूंकि तीन तलाक का पूरा प्रोसेस होते-होते सब कुछ साफ़ हो जाता है की पति-पत्नी को साथ रहना है की नहीं| लेकिन सिर्फ ऐसे कि अपनी आज़ाद मर्ज़ी से वो औरत किसी दूसरे मर्द से शादी करे और इत्तिफाक़ से उनका भी निभा ना हो सके और वो दूसरा शौहर भी उसे तलाक दे दे या मर जाए तो ही वो औरत पहले मर्द से निकाह कर सकती है, इसी को कानून में ”हलाला” कहते हैं। लेकिन याद रहे यह इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है, जान बूझकर या प्लान बना कर किसी और मर्द से शादी करना और फिर उससे सिर्फ इसलिए तलाक लेना ताकि पहले शौहर से निकाह जायज़ हो सके यह साजिश सरासर नाजायज़ है और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसी साजिश करने वालों पर लानत फरमाई है|
इस्लाम हलाला से पहले मर्द और औरत को तीन मौका देता है, जिससे वो अपनी गलती सुधार सके अगर इसके बावजूद भी वो नहीं सुधरते है तो हलाला जायज है मगर इत्तिफ़ाक से हो तो जायज़ है|
औरतों के अधिकार (खुला)
इस्लाम ने मर्दों की तरह औरतों को भी यह अधिकार दिया है कि यदि वह अपने पति के साथ वैवाहिक जीवन को समाप्त करना चाहती है तो यह उसका अधिकार है। वह ऐसा बिलकुल कर सकती है और पति के इच्छा होने या ना होने का इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
बल्कि औरतों को जो अधिकार है वह मर्दों के अधिकार से अधिक सरल और नियम शर्तों की अपेक्षा कहीं अधिक सुगम है।
यदि कोई महिला अपनी शादी से खुश नहीं है तो वह मुफ्ती को बुलाकर अपने पति से खुला ले सकती है , पति कुछ नहीं कर सकता।
महिला को ना तो इद्दत की अवधि पूरी करनी होती है और ना ही उसे किसी तरह की भरपाई करनी होती है, औरतों को यह हक केवल और केवल इस्लाम में है।
तो ये है पूरा प्रोसेस अगर मुझसे कुछ लिखने में कुछ गलतियाँ हुई हो तो मेरे मुस्लिम भाई मुझे माफ़ करेंगे.
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Oh thanks bro
Yaa bro I checked that like is complete same, I wrote this from news paper
Congratulations @sam786! You received a personal award!
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