आधा-आधा
कल्पना कीजिए कि एक समुदाय के लोग चले गए हैं, तो क्या हम संसार में सबसे अमन पसंद देशवासी बन जाएंगे? सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी? लोग झूमने लगेंगे, आनंद में लीन हो जाएंगे? सभी फसाद मिट जाएंगे?
सोचिए, क्या ऐसा हो सकता है?
मैं जानता हूं कि आप ऐसा नहीं सोचेंगे, क्योंकि आप सोचना ही नहीं चाहते हैं।
संजय सिन्हा अगर राजनीति पर लिखते होते, राजनीति उनका विषय होता तो कहते कि नहीं समस्या खत्म नहीं होगी, क्योंकि अगली समस्या अगड़े-पिछड़े की खड़ी हो जाएगी। खड़ी हो क्या जाएगी, खड़ी है। अब क्या करेंगे?
ये सभी समस्याएं राजनीतिक हैं, गढ़ी हुई हैं। मैं जानता हूं कि असल में ये समस्या है ही नही। समस्या कहीं और है। दुर्भाग्य से राजनीति उन पर चर्चा करने को तैयार नहीं, क्योंकि उस समस्या पर उसका खुद का चेहरा पुता हुआ है।
संजय सिन्हा और कौन-सी समस्या है जिसे आप उकेर रहे हैं और वो राजनीति से परे है?
मैं जानता हूं यही सवाल आपके मन में उमड़-घुमड़ रहा होगा।
समस्या है ‘आधी आबादी’ को बराबरी का दर्जा नहीं देने का हमारा मन। हमारी सोच।
मैं क्योंकि रोज़-रोज़ रिश्तों पर लिखता हूं, लोगों की सोच पर लिखता हूं, घर की दुरूह समस्याओं को पढ़ने की कोशिश करता हूं तो अब मेरे पास थोक में शिकायतें आने लगी हैं, “संजय जी, कुछ कीजिए। मेरे लिए कीजिए, उसके लिए कीजिए।”
आप सोच नहीं सकते कितनी महिलाओं ने पिछले कुछ दिनों में अपनी कहानी मुझसे साझा की है। अपने दुख, अपने अकेलेपन, अपनी गुलामी की कहानी।
जानते हैं समस्या कहां है?
समस्या है हमारी-आपकी सोच में। समस्या है आधी आबादी के संग हमारे रवैये में।
मेरे पास आने वाली हर समस्या एक कहानी है। एक पीड़ित महिला की कहानी। वो महिला है हमारे आपके घर की। गैर बराबरी का दंश सहती एक महिला की।
वो न हिंदू है, न मुसलमान, न ईसाई, न पिछड़ी, न अगड़ी। वो वही है जो हम और आप हैं। दुर्भाग्य देखिए कि आवाज़ आप तक पहुंचती ही नहीं।
आप पैदा की गई समस्याओं में खुद को झोंक कर इस कदर शुतुरमुर्ग बने बैठे हैं कि अपने घर की समस्या दिखती ही नहीं।पीड़ा समझ में आती ही नहीं।
असल में आप नहीं चाहते कि इन विषयों पर चर्चा हो।
अगर मैं आपसे कहूं कि आपके घर की किसी एक सदस्य ने मुझे लिख भेजा है कि संजय जी, अब थक गई हूं, सहते-सहते तो आप पर क्या बीतेगी? कैसा लगेगा सुनना? आप तिलमिला उठेंगे। मुझे कोसने लगेंगे, जबकि कोसना आपको खुद को है। एक बार आप जनमत संग्रह करा लें तो अगला बंटवारा धर्म और अर्थ के आधार पर नहीं होगा। बंटवारा होगा लिंग के आधार पर।
सच्चाई यही है कि आपने कभी उन्हें सुना ही नहीं। आपने उनके मन को कभी पढ़ने की कोशिश ही नहीं की। आपने उनकी चाहतों की ओर कभी झांका ही नहीं। असल में आप जानते हैं कि आपका व्यवहार उनके लिए कितना बुरा है। आपने सिर्फ अपनी चाहतों को जिया है और खुद को महाबली साबित करने के लिए उन समस्याओं उकेरा, जो असल में समस्या है ही नहीं।
मैं किसी कोई नाम लिख कर अपनी कहानी को इधर-उधर नहीं करना चाहता। मेरी कहानी सीधी पगडंडी पर चलती है। मैं कहता हूं कि हम सब बराबर के हिस्सेदार हैं उस पाप में, जिसे मैं यहां दर्ज कर रहा हूं। मुझे नहीं पता कि आजादी के बाद देश जो बंटा वो धर्म के आधार पर क्यों बंटा? बंटना चाहिए था लिंग के आधार पर। दे देते एक देश उन्हें, जिन्हें आपकी सत्ता स्वीकार नहीं। क्या फर्क पड़ा देश की आजादी से उन पर? वो तो तब भी आपकी गुलाम थीं, आज भी हैं। आपका अत्याचार तब भी सह रही थीं, आज भी सह रही हैं। तब भी इक्का-दुक्का ही बोल पाती थीं, आज भी इक्का-दुक्का ही बोल पाती हैं।
उनका हाल पूछना है तो उस पादरी से पूछिए जो गिरजा घर में एक खिड़की के पीछे बैठ कर उनकी तकलीफों को सुनता हैं। पूछिए संजय सिन्हा से जिन्हें पता नहीं देश के किस हिस्से से फोन करके वो बिना कुछ कहे सुबक उठती हैं।
फिर कहती हैं, “संजय, भैया… कुछ कीजिए” और फोन काट देती है।
आप कैसे पूछेंगे? आप तो मन ही मन जानते हैं कि किसकी आजाद ज़िंदगी पर आपने गुलामी थोपी है। आप उसकी पीड़ा सुनेंगे कैसे? वो उफ्फ कहेगी तो आपकी हथेली कमर में बंधी बेल्ट की ओर न मुड़ जाएगी? उसे देखते ही आपका जागीर भाव जागता है, जमीर भाव नहीं। आप उलझे रहिए, उलझाए रखिए।
हकीकत का संसार बहुत जुदा है।
संजय सिन्हा की भविष्यवाणी याद रखिएगा, एक दिन आप एक अलग जंग में फंस जाएंगे। वो जंग होगी आधी आबादी की।
फिर दुनिया के दो हिस्से होंगे। आधा, आधा।
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