समाज-सेवा : प्रभु-सेवा (भाग # १) | Community Service : God Service (Part # 1)

in #life6 years ago

समाज-सेवा : प्रभु-सेवा (भाग # १) | Community Service : God Service (Part # 1)

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व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है । उसकी समस्त आवश्यकताएं समाज में रहकर पूरी होती हैं । अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए वह समाज पर आश्रित है । बिना समाज के व्यक्ति का जीना एक प्रकार से कठिन ही है । किन्तु सृष्टि के आरम्भ में वह शायद इतना परावलम्बी नहीं था । सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव जीवन अन्योन्याश्रित आवश्यक रूप से हुआ है । मानव के अतिरिक्त किसी भी प्राणी को प्रात: दन्तमंजन एवं पेस्ट आदि या रोटी बनाने के लिए अन्न, चक्की-चूल्हा, तवा, लकड़ी आदि दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं आवश्यक नहीं है । जबकि मानव इन प्रत्येक वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर करता है । जिस प्रकार विद्युत प्रकाश के लिए बल्ब, तार, करंट एवं तत्सम्बन्धित सम्पूर्ण उपकरणों में से प्रत्येक का ठीक होना आवश्यक है, तभी प्रकाश हो सकता है, इनमें से एक अत्यन्त साधारण नन्हें से सूक्ष्म तार के फ्यूज होने मात्र से अंधेरा रहता है, इसी प्रकार मानव भी, उदाहरण के लिए – अन्न के लिए ही, किसान, व्यापारी, बैल आदि न जाने कितनों पर आश्रित है । यदि इनमे से किसी एक का भी अपेक्षित सहयोग समय पर उपलब्ध न हो तो जीवन में बाधा उपस्थित हो जाती है । मानव का जीवन समाज में परस्पर के सहयोग पर निर्भर है । व्यक्ति अपनी आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु के लिए समाज के तत सम्बन्धित व्यक्ति पर आश्रित है । इसके अतिरिक्त व्यक्ति का समाज में भावनात्मक सम्बन्ध भी है । अपने परिवार, समाज और देश के लिए व्यक्ति के मन में भावना होती है । उसके सुख-दुःख उत्कर्षापकर्ष पर उसे सुख-दुःख के अनुभूति होती है । विदेश में रहते हुए भी अपने देश और अपने समाज के साथ भावनात्मक सम्बन्ध बराबर बना रहता है । यदि दूरस्थ प्रदेश से अपने निकट सम्बन्धी की गम्भीर बीमारी का सन्देश मिलता है तो शीघ्रातिशीघ्र वहां पहुँचने का प्रयास किया जाता है ताकि उनकी कुशलता ज्ञात की जा सके एवं सेवा-सुश्रूषा सम्भव हो सके । ये सब सम्बन्ध एवं भावना मानव-समाज में ही है । पशु-पक्षी समाज में ऐसा नहीं है । प्रकृति ने भी मानव को सामाजिक बनाया है । क्योंकि मानव-बच्चे के अतिरिक्त पशु-पक्षी के बच्चों को प्रकृति ने बहुत कम माता-पिता पर आश्रित रखा है । वे जन्म के कुछ दिन पश्चात ही स्वयं चलने-फिरने, खाने और खेलने-कूदने लग जाते हैं । शीघ्र ही आत्म-निर्भर हो जाते हैं । जबकि मानव बच्चा जन्म के बाद लगातार देख-रेख एवं दवाई आदि की सहायता से पल कर भी वर्षों के बाद खाना व चलना भर सीख पाता है । उसे निरंतर माता-पिता की सहायता की आवश्यकता बनी रहती है । इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा गया है । इसके पालन-पोषण एवं विकास के लिए समाज आवश्यक है ।

समाज व्यक्तियों का समूह है । व्यक्ति इसकी इकाई है । इसलिए व्यक्ति में स्वयं के अतिरिक्त अपने समाज के लिए भी भावना होनी आवश्यक है । तभी समाज का संगठन और दृढ़ता बनी रह सकती है । कालान्तर में किसी भी व्यक्ति, समाज या संस्था में बुराई उत्पन्न हो सकती है और समयानुसार उसमें सुधार की अपेक्षा होती है । सुधार की उपेक्षा से समाज का ढांचा अस्त-व्यस्त होने लगता है । दृढ़ता जाती रहती है । उसके गौरव पर आंच आ जाती है । उसका सौन्दर्य नष्ट होने लगता है ।

ऋषि-मुनियों द्वारा निर्मित पावन नियमों से संचालित भारतीय समाज एक आदर्श समाज था । त्याग एवं परोपकार इसके मूल थे । एक बार एक साधु परुष नदी तट पर स्नान निमित्त गये । जल में बहता हुआ बिच्छू उन्हें नजर आया । साधु वृति प्रबल थी । धारा में असहाय अवस्था में डूबते-तैरते उस विष भरे प्राणी पर भी साधु को दया आ गई । उन्होंने उस बिच्छू को हाथ पर रखकर निकलने का उद्योग किया । किन्तु पर स्पर्श होते ही साधु को बिच्छू ने डंक मारा तथा पीड़ा वश बिच्छू साधु हाथ से गिरकर फिर धारा में जा पड़ा और बहने लगा । साधु से न देखा गया । पुन: द्वितीय बार उसको निकालने का प्रयास किया किन्तु फिर भी बिच्छू साधु-कर में डंक मारकर धारा में जा पड़ा । तीसरी बार बिच्छू को निकालने के प्रयास में देखकर निकटस्थ व्यक्ति ने साधु को उस विषैले बिच्छू के स्वभाव की स्मृति दिलाई । तब साधु ने स्वाभाविक रूप में निश्छल भाव से उत्तर दिया कि “जब यह बुद्धिहीन प्राणी भी अपनी सहज वृति को नहीं त्याग पा रहा है तो मैं मानव होकर भी अपने साधु-चित्त उपकार भाव को कैसे त्याग दूं ?” इन उच्च भावनाओं के स्तम्भों पर भारतीय समाज की दृढ़ता का प्रासाद खड़ा था । समाज में उपकार और पारस्परिक सहयोग समाज के मूलाधार थे ।

The English translation of this post are below:

The person is a social creature. All his needs are fulfilled in the society. He is dependent on society to fulfill his needs. Life of a person without a society is difficult in a way. But at the beginning of the creation, he was probably not overwhelmed. In addition to the development of civilization, human life has necessarily interdependent. Many things other than humans, in the form of grains, paste, etc. to make roti, food, grinder, stove, wood etc., many things that are used in daily life are not necessary. While humans depend on others for each of these things. Just as light, light, current and all related devices for the light of electricity are necessary to be correct, only then can light, one of them is dark from just a few simple fuses of a small wire, similarly Human beings, for example- dependent on food grains, farmers, traders, bulls etc. If any of these is not available on time, the expected interference is present in life. Human life depends on mutual cooperation in society. The person is dependent on the person related to the society for each object of his requirement. Apart from this, there is also an emotional connection in the person's society. There is a feeling in the person's mind for his family, society and country. On the pleasures and pleasures of her, she feels the pain of happiness and sorrow. Even while abroad, emotional relationships with their country and their society remain the same. If the remote region receives a message of serious illness from your near relation, then an attempt is made to reach there early in order to know their skills and to facilitate service. All these relations and feelings are in the human society itself. This is not so in the animal-bird society. Nature has also made humans social. Because the children of animal-birds in addition to the human child have their nature dependent on very little parents. After a few days of birth, they start walking, eating and playing. Soon become self-dependent. While a human child is able to learn after eating after continuing to go after eating and drinking after a period of continuous care and medicine etc. It requires continuous support of parents. That is why man is said to be a social animal. Society is essential for its upbringing and development.

Society is a group of individuals. The person is its unit. Therefore, it is necessary for the person to have a sense of self in addition to himself. Only then can the organization and firmness of the society remain. In the long run, evil may arise in any person, society or institution, and by the time it is expected to improve. The neglect of reform leads to the fraying of society. Perseverance goes on. There is a flaw in his pride. Her beauty starts destroying.

The Indian society operated by the holy rules created by the Sages and Munis was an ideal society. Sacrifice and charity were its roots. Once upon a time the bath was celebrated on a sad river Parush river. They saw the scorpions flowing in the water. The sadhu was powerful. The sadhu also received mercy on the poisonous animal floating in the helpless condition of the stream. They did the industry to put that scorpion on hand. But after touching on the monk, the scorpion stung and scouring the scorpion monk fell down from the hand and then went into the stream and started flowing. Not seen from a monk Again tried to remove him for the second time, but still the scorpion had stuck in a monk-tax and went into the stream. For the third time, in an effort to remove the scorpion, the next person reminded the sadhu of the nature of the poisonous scorpion. Then the sadhu replied in a natural way: "When this unconscious creature is not sacrificing its natural instincts then how can I renounce my sad-minded goodness even after being human?" On the pillars of these high emotions The pride of the Indian society was standing. In the society, favors and mutual cooperation were the foundations of society.

Steeming of Community Service

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जी बिलकुल सही बात हे की समाजसेवा हे सबसे बड़ी सेवा हे हर प्रतेक इंसान किसी न किसी समाज से जुड़ा हुआ हे और ये प्रतेक इंसान का फरज हे की उसे समाज को वापस देना चाहिए कुछ कियोकि उसे मिला भी तो इसी समाज से हे

जो सुख और आनंद हमे दुसरो की सेवा और समाज की सेवा से मिलता है शायद वो और कही नहीं मिलता.

मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य होते जितने है
जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले होठ।

बहुत अच्छा लिखा आपने इस पोस्ट में।

आपने सही कहा, परन्तु मैं इसमें थोड़ा ओर सही करना चाहता हूँ कि मानवता की सेवा करने वाले हाथ, परमात्मा की प्रार्थना करने वाले होठों से ज्यादा धन्य होते है. उम्मीद है आपको पसंद आएगा.

आपकी सोच बहुत अच्छी है ।माता पिता की सेवा ही सबसे बड़ा पुण्य है।ये समाज सेवा से कही ज्यादा पुण्य का काम है।

@mehta
सब महान बन सकते हैं। क्योंकि कोई भी सेवा कर सकता है। आपको सेवा करने के लिए कॉलेज की डिग्री नहीं चाहिए। आपको अपना विषय बनाना नहीं है। आपको सेवा करने के लिए भौतिकी में थर्मोडायनामिक्स के दूसरे सिद्धांत का पता होना जरूरी नहीं है।
आपको बस एक दया से भरे दिल की आवश्यकता हैऔर प्यार से उत्पन्न एक आत्मा।

बड़े बुजुर्गों और लोगों की सेवा व आदर करने वाला अच्छे चरित्र की निपुणता को प्राप्त कर "शान्ति" को प्राप्त होता है।

मेहता जी आप इसी प्रकार से हम सबके लिए अच्छे शब्द लेकर आते रहिये ... हम सबकी अच्छी भावनाएँ आपके साथ हैं

Apne ek dam shi kaha hy Sir samaj seva hi prabhu ki seva hy.

माला की तारीफ़ तो करते हैं सब ,
क्योंकि मोती सबको दिखाई देते हैं ....

मैं - तारीफ़ उस धागे की करता हु , जिसने सब को जोड़ रखा है ....

🙏🙏

wow.... nice post and perfect @mehta

Your post is really awesome)))